स्पर्श हीन
पत्थर भी रोया करते थे
तुम जहर जो बोया करते थे
उस पनघट पे, उस आँगन पे, ये दिल छन -छन कर झरता था
हर महफ़िल में, हर दामन में, बस तुमको ढूंढा करता था ...
शिकवे भी राजी लगते थे ,
बस अड्डे खाली लगते थे ,
दर्पण -दर्पण, पानी -पानी सबमे साये से दिखते थे ,
कुछ इठलाते कुछ बलखाते पर सब तुमसे ही लगते थे ,
वो समां गया, सब चुरा गया
बस इन हाथों को मय(मदिरा) थमा गया .....
अब जहर घोल के पीते है ,
उन यादो के संग जीते है ,
.
पर अब जब तुम रोने आना ,
उन अंगारों को घर रख आना ,
जीते नहीं तो मरते-मरते दो- चार फूल चढ़ा जाना -2...... .:(
$@urab# paliwal (रौनक)