Tuesday, April 19, 2016

समय या स्वयं

इक माटी की अरज सुनो
सुर नया ही गाकर कहती हे।
तुम समय की  कर्कश काया हो
कुछ स्वलेखो का साया हो।
कभी भिक्षुक भी गद्दी पाता हे और राणा दर दर मंडराता है ,
कभी सिफर चन्द्रमा हो उठता और सूरज हर सावन चुप जाता है।

इक माटी की अरज सुनो
सुर नया ही गाकर कहती हे।
की जो रक्त पसीना रंजीत हो
जो रक्त रवानी अंगीत हो,
वो रक्त समय का भाव नहीं
वो अंगारो का दास नहीं।
सूरज फिर जगमग फैलाएगा  चन्दा रवा हो जाएगा ,
तो उठो की तुम ही सर्वशक्त हो बढ़ो की  तुम ही सुरसमस्त हो
और अंत तभी लेना जबकि भवसागर तर जाए
चाहे छूटे प्राण सभी या अंत वही आ जाए।